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तानाशाही

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तानाशाह हिटलर

वर्तमान समय में तानाशाही या अधिनायकवाद उस शासन-प्रणाली को कहते हैं जिसमें कोई व्यक्ति (प्रायः सेनाधिकारी) विद्यमान नियमों की अनदेखी करते हुए डंडे (डण्डे) के बल से शासन करता है।

एकाधिनायकत्व, अधिनायकवाद उस एक व्यक्ति की सरकार है जिसने शासन उत्तराधिकार के फलस्वरूप नहीं वरन् बलपूर्वक प्राप्त किया हो तथा जिसे पूर्ण संप्रभुत्ता प्राप्त हो-अर्थात् संपूर्ण राजनीतिक शक्ति न केवल उसी के संकल्प से उद्भूत हो वरन् कार्यक्षेत्र और समय की दृष्टि से असीमित तथा किसी अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं-और वह उसका प्रयोग बहुधा अनियंत्रित (अनियन्त्रित) ढंग (ढङ्ग) से विधान के बदले आज्ञप्तियों द्वारा करता हो।

दिक्तेतर (डिक्टेटर, एकाधिनायक) शब्द को सर्वप्रथम प्रयुक्त करनेवाले रोमन लोग थे जो कुछ विशिष्ट प्रशासकों को अनुमानत: इसलिए दिक्तेतर कहते थे कि उनके कोई सलाहकार नहीं होते थे। रोमन गणतंत्र के संविधान में एकाधिनायकत्व या अधिनायकवाद से तात्पर्य संकटकालीन स्थिति में किसी एक व्यक्ति के अस्थायी रूप से असीमित अधिकार प्राप्त कर लेने से था। संकट टल जाने पर एकाधिनायक के असीमित अधिकार भी समाप्त हो जाते थे और उन्हें छोड़ते समय उसे उनके प्रयोगों का पूरा ब्योरा देना पड़ता था। अत: विधान तथा शासितों के प्रति उत्तरदायित्व अधिनायक की प्रमुख विशेषता थी।

आधुनिक युग में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद किसी एक व्यक्ति या वर्ग के स्वार्थ के लिए विधान का उल्लंघन एकाधिनायकत्व का प्रमुख लक्षण हो गया। युद्ध ने जनसाधारण के मस्तिष्क को थकाने के अतिरिक्त उसपर संयम के स्थान पर सैन्य अनुशासन आरोपित कर सभी सामाजिक क्षेत्रों में आज्ञापालन की प्रवृत्ति उत्पन्न की। सैन्य उद्देश्यों के लिए आवश्यक सत्ता के केंद्रीकरण ने लोगों को इस बात के लिए अभ्यस्त बना दिया कि वे सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए ऐसी निरंकुश सत्ता के निर्णय मान लें जो किसी के प्रति उत्तरदायी न हो। ऐसी परिस्थिति में जनतांत्रिक पद्धति विघटित होती जान पड़ी। फलत: युद्ध से सर्वाधिक प्रभावित देशों में सामान्यत: लोग ऐसे 'लौहपुरुष' के स्वागत के लिए तत्पर थे जो अपने शौर्य, आत्मविश्वास और कटिबद्धता के बल पर उनका मत लिए बिना राष्ट्र के नाम पर अपनी इच्छा तथा आदेश से समस्याओं का समाधान कर दे। अत: जनता के लिए सामान्यत: एकाधिनायक वह कर्मठ व्यक्ति हुआ जो स्वयं राष्ट्रीय प्रतीक बन किसी रहस्यात्मक आकर्षण द्वारा अपने प्रति आदर का भाव जगा सके तथा इस आधार पर लोगों को महान होने का अनुभव करा सके कि वे उससे संबंधित हैं।

एकाधिनायकत्व की प्रथम विशेषता उसके उद्गम में हैं। किसी देश तथा युग में इसकी स्थापना कभी उन साधनों से नहीं होती जो उस देश और युग में वैध माने जाते हैं। उसके लिए यह आवश्यक है कि उसकी नींव विधान के उल्लंघन पर हो, यद्यपि उसका अस्तित्व किसी विधान के न मानने पर आश्रित नहीं है। प्रत्येक एकाधिनायकत्व का प्रारंभ विप्लव से होता है और फिर संभवत: किन्हीं कारणों से वह अपना क्रांतिकारी स्वरूप बनाए रख सकता है। परंतु उसका उद्देश्य पुराने विधान के स्थान पर नए विधान की स्थापना भी हो सकता है क्योंकि एकाधिनायकत्व पुरातन, जीर्ण व्यवस्था की असफलता तथा नवीन व्यवस्था के लिए उसके ध्वंस की पूर्वकल्पना करता है। उसकी दूसरी प्रमुख विशेषता यह है कि जनतंत्र (जो सिद्धांतत: प्रत्येक नागरिक को सरकार में भाग लेने का अधिकार देता है) के विपरीत इसका संचालन एक व्यक्ति या वर्ग के हाथ में दूसरों पर शासन करने के लिए होता है। तीसरे, सत्ताधारी खुले ढंग से यह घोषित करता है कि राष्ट्र में उसका एक विशिष्ट स्थान है।

अतएव व्यापक अर्थ में एकाधिनायकीय सरकार वह व्यवस्था है जिसमें राज्य के एक या कई सदस्य खुले तथा व्यवस्थित ढंग से पूरे राष्ट्र पर शक्ति का -जिसे उन्होंने पूर्व के सभी वैध आधिकारों और स्थापनाओं के उल्लंघन के फलस्वरूप होनेवाली हिंसा से अर्जित किया है-प्रयोग सरकार में भाग न लेनेवाली जनता की सम्मति से स्वतंत्र रहकर करते हैं।

सरकार के स्वरूप के आधार पर एकाधिनायकत्व दो वर्गो में विभाजित किया जा सकता है :

  • (१) एक व्यक्ति के अधिनायक होने पर वैयक्तिक अधिनायकत्व, तथा
  • (२) एक वर्ग के अधिनायक होने पर सामूहिक एकाधिनायकत्व की स्थापना होती है।

वैयक्तिक एकाधिनायकत्व (विशेषत: फ़ासिस्ती) में एकाधिनायक अपने निजी कर्मचारियों की सहायता से 'फ़यूरर' के सिद्धांत के आधार पर स्वतंत्र ढंग से शासन करता है। फ़्यूरर की विशेषता यह है कि वह अपने सहायकों के प्रति उत्तरदायी नहीं होता, वरन् अपने से ऊपर-राष्ट्र, इतिहास या ईश्वर-के प्रति अपना दायित्व घोषित करता है। फ़यूरर अपने सहायकों को नियुक्त करता है जो अपने अधीन कर्मचारियों को और ये कर्मचारी फिर अपने अधीनों को नियुक्त करते हैं। इस प्रकार पूरी व्यवस्था में निर्वाचनपद्धति का कोई स्थान नहीं होता और संपूर्ण ढाँचा सर्वोपरि चरम बिंदु पर अवलंबित होता है। सामूहिक एकाधिनायकत्व में फ़यूरर के स्थान पर उत्तरदायी नेता होते हैं; नेताओं की एक श्रेणी उच्चतर श्रेणी के नेताओं को चुनती है, प्रत्येक नेता अपने निर्वाचकों के प्रति उत्तरदायी होता है। इस प्रकार संपूर्ण ढाँचा निम्नतम आधार पर अवलंबित होता है।

सामाजिक शक्तियों के आधार पर भी एकाधिनायकत्व के दो वर्ग हो सकते हैं।

  • (१) जब वैयक्तिक एकाधिनायकत्व में सहायक वर्ग किसी दल, निजी या राजकीय सेना, चर्च या प्रशासकीय विभाग का हो,
  • (२) जब सामूहिक एकाधिनायकत्व में यही वर्ग स्वयं अधिनायक हो।

अतएव यह विभाजन शासक तथा सहायक वर्ग के आधार पर होता है। वर्ग एकाधिनायकत्व के आधुनिक तीन प्रमुख प्रकार हैं : सैन्य, दल और प्रशासकीय।

तीसरा वर्गीकरण परिमाणात्मक स्वरूप के आधार पर हो सकता है; यथा,

  • एकात्मक अधिनायकवाद - जिसमें केवल एक वर्ग या केवल एक व्यक्ति तथा जिसका सहायक केवल एक वर्ग (यथा, निजी सेना) हो;
  • बहुलवादी अधिनायकवाद - जिसमें कई शक्तियाँ, व्यक्ति या वर्ग हों जो पूर्ण रूप से, अपने को अधिनायक के अधीन न करें और सत्ता के लिए परस्पर होड़ करें परंतु ऐसी स्थिति में भी अन्य से अधिक शक्तिशाली एक व्यक्ति या वर्ग का आस्तित्व तो होता ही है।

अधिनायकवाद के तीनों वर्गीकरण एक दूसरे से संबद्ध भी हो सकते हैं। यथा, सैन्य एकाधिनायकत्व, निजी तथा सामूहिक दोनों ही हो सकता है।

सभी महत्वपूर्ण एकाधिनायकताओं में धार्मिक सांप्रदायिकता की विशेषता होती है, यथा उत्साह के साथ प्रवर्तक की पूजा तथा एक विशिष्ट विधि के प्रति श्रद्धा। महान व्यक्तियों से संचालित, सदैव आकर्षक विचारधारा से प्रेरित, अपने अनुयायियों से कर्तव्य के रूप में बलिदान की माँग करता हुआ, एकाधिनायकत्व सक्रिय व्यक्ति द्वारा स्थापित सरकार का एक स्वरूप है। वह उन पराक्रमी और गतिशील वर्गो को लेकर चलता है जो स्वभावत: विप्लव के लिए प्रवृत्त होते हैं : यथा, सेना, शूर वर्ग या सर्वहारा वर्ग। एकाधिनायक अपने संकल्प और भाव शासितों पर आरोपित करता रहता है। इस आरोपण के दो साधन हैं: नकारात्मक, सकारात्मक। नकारात्मक साधन हैं, आलोचना को रोकना, विरोधी बहुमत या अल्पमत को नष्ट करना, राज्य संबंधी आवश्यक और महत्वपूर्ण तथ्यों को गुप्त रखना। इन साधनों के सहायक साधन हैं: संसद की समाप्ति, संघों तथा दलों का विघटन, प्रेस पर प्रतिबंध, शिक्षा पर नियंत्रण, प्रमुख विरोधियों का निष्कासन आदि। इस संबंध में हिंसा तथा आतंक की भी चर्चा की जाती हैं, परंतु वस्तुत: ये एकाधिनायकत्व की केवल प्रारंभिक अवस्था के लक्षण हैं जो सामान्यत: क्रांतिकारी और इसलिए अवैध होते हैं। यदि एकाधिनायकत्व इस अवस्था से गुजरने में सफल हुआ तो वह साधारणत : हिंसा और आतंक के स्थान पर प्रशासकीय विधान स्थापित करता है।

सैन्य एकाधिनायकत्व सामान्यत: इन्हीं नकारात्मक साधनों से संतुष्ट रहता है; परंतु वर्ग एकाधिनायकत्व इनके अतिरिक्त सकारात्मक साधनों का भी प्रयोग करता है; यथा, प्रचार द्वारा अधिनायक के भावों, विचारों और मतों का जनता पर आरोपण, इच्छानुकूल जनमत का सृजन आदि। इन साधनों के सहायक साधन हैं : राष्ट्रीय या वर्गप्रतीकों की पूजा, उत्तेजक संगीत का प्रसार, दंभ या घृणा की भावनाएँ उभारनेवाले भाषण, आज्ञापालन की आदत डालने के लिए समस्त राष्ट्र को सैन्य शिक्षा देना, विद्यालयों के लिए पुस्तकें तैयार करना, अबौद्धिक विचारधारा का प्रचार, राजनीतिज्ञों, पत्रकारों तथा विद्वानों को घूस देकर उनका मुँह बंद करना।

परंतु किसी भी सभ्य देश में, जिसका निकट अतीत औदार्यवादी या जनतांत्रिक रहा हो, ये साधन एकाधिनायकवाद की स्थापना के लिए तब तक पर्याप्त नहीं हैं जब तक उनके साथ जनता से लुभावने आदर्शो, यथा आज्ञाकारिता, अनुशासन, सत्ता, एकता, शक्ति, देशप्रेम आदि के लिए सतत अपील न की जाए और व्यक्ति में अपने निजी अधिकारों को एकाधिनायक के हाथों सोंपने का उत्साहपूर्ण भाव न उभारा जाए। इसके लिए धर्म से संबंधित भावों को विकृत कर अपने राज्य, राष्ट्र, जाति या वर्ग की स्तुति या पूजा के भावों में परिणत किया जाता है।

जिस अवैध ढंग से एकाधिनायकत्व की स्थापना होती है उसी ढंग के अतिरिक्त उसका उन्मूलन प्राय: असंभव है। एकाधिनायकवाद राष्ट्र को स्वायत्त शासन की विधियाँ सीखने से रोकता है और इसलिए एक एकाधिनायक के देहांत के बाद व्यक्तियों और वर्गो में सत्ता के लिए प्रतिद्वंद्विता राष्ट्र के लिए विपत्ति का कारण बन सकती है।

अधिनायकतंत्र के गुण

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अधिनायकतंत्र व्यवस्था के व्यवहार में इतने लाभ हैं कि अनेक लोकतांत्रिक राज्यों में जनता लोकतंत्र में कुछ लोगों की मनमानी करने की स्वतंत्रता से ऊबकर अधिनायकतंत्र व्यवस्था की कामना करने लगती है। अगर अधिनायकतंत्र के उत्कर्ष के कारणों की खोज की जाए तो विदित होगा कि जिस-जिस देश में निराशा, अव्यवस्था, असंतोष तथा अभाव था वहीं अधिनायकतंत्र का उदय हुआ है। जिन देशों में लोकतंत्र व्यवस्था लोगों में निराशा तथा अभाव उत्पन्न करने वाली बनी, वहीं इस व्यवस्था की स्थापना हो गई। आज भी अनेक राज्यों में जनता अधिनायकतंत्र को अच्छा मानकर निरंकुश शासकों का पूर्ण समर्थन करती हुई दिखाई देती है। इससे यह स्पष्ट है कि अधिनायकतंत्र में कुछ ऐसे गुण हैं जो अन्य व्यवस्थाओं की सैद्धान्तिक श्रेष्ठता के बावजूद इस व्यवस्था को अपनाने के लिए प्रेरणा के जिम्मेदार हैं। संक्षेप में ऐसे शासन के निम्नलिखित लाभ हैं-

(1) अधिनायकतंत्र में शासन कुशलता होती है। सारी शासन शक्ति एक व्यक्ति में निहित होने के कारण, न केवल निर्णय शीघ्रता से लिए जा सकते है, वरन निर्णयों के क्रियान्वयन की भी सुव्यवस्था हो जाती है। अधिनायकतंत्री व्यवस्था में शासक से सभी भयभीत रहते हैं इस कारण वे कार्य में देरी या शिथिलता नहीं कर सकते हैं। निरंकुश शासक के प्रति सम्पूर्ण प्रशासन न केवल उत्तरदायी रहता है अपितु हर समय सतर्क, सचेत व सक्रिय भी रहता है। इससे शासन में कार्य-दक्षता आ जाती हैं।

(2) इस व्यवस्था का दूसरा गुण देश का तेजी से विकास है। देश में एक ही नेता, एक ही योजना तथा एक ही विकास लक्ष्य रहने से देश की सम्पूर्ण शक्ति इसी लक्ष्य के मार्ग को प्रशस्त करने में प्रयुक्त होती है। आर्थिक साधनों का समुचित विकास व उपयोग सम्भव होता है। देश के विकास के लिए एकता, शान्ति व व्यवस्था की आवश्यकता होती है। अधिनायकतंत्र में इनकी ठोस व्यवस्था रहने के कारण देश के सारे साधन विकास में लगाए जा सकते हैं।

(3) देश में एकता की स्थापना में अधिनायकतंत्र बहुत सहायक रहता है। विभिन्न दलों तथा विरोधियों का दमन करके देश में एक दल व एक नेता का शासन स्थापित होने के कारण सारी जनता इसके प्रति वफादार हो जाती है। नेता के चारों तरफ, सारी व्यवस्थाएं गुंथ जाती हैं तथा देश एक ठोस एकता के सूत्र में बंध जाता है। दल या नेता एकता में बांधने का साधन हो जाता है और उसी में सबको अपनत्व का आभास होने लगता है। हिटलर व मुसोलिनी इसी तरह जर्मनी व इटली को एक करने में सफल रहे थे।

(4) राष्टींयता की भावना जाग्रत करने में सहायक है। देश के नागरिकों को पारस्परिकता में बांधने के लिए एक विचारधारा, एक दल व एक नेता का होना पर्याप्त होता हैं। सभी नागरिक बन्धुत्व की भावना से अनुप्राणित रहते हैं। एक राष्ट्र का नारा, एक ही झंडे के नीचे सबको खड़ा कर देता है। देश भक्ति का इतना प्राबल्य होता है कि नागरिक अपने देश तथा नेता के लिए बलिदान तक करने के लिए तैयार हो जाते हैं।

(5) संकट काल में तानाशाही व्यवस्था सर्वोत्तम रहती है। इसमें संकट का सामना करने के लिए सभी निर्णय व आदर्श एक व्यक्ति द्वारा दिये जाने के कारण, आदेशों की एकता रहती है। इससे समय पर उचित कार्यवाही करना सरल हो जाता है। युद्धकालीन संकट में तो यही व्यवस्था विजय दिलाती है।

(6) अधिनायकतंत्र व्यवस्था में देश का बहुमुखी विकास होता है। आर्थिक क्षेत्र में भी तेजी से विकास की व्यवस्था होती है। एकता, अनुशासन व कर्तव्य-परायणता के कारण विकास की श्रेष्ठ व्यवस्था हो जाती है। रूस, जर्मनी, चीन, इटली, टर्की और स्पेन का अभी तक इतिहास इस बात का साक्षी है। जेक्सन ने अपनी पुस्तक ‘यूरोप सिन्स दी वॉर’ में ठीक ही लिखा है- ”स्पेनवासियों के इतिहास में यह पहला अवसर है जबकि रेलें समय पर चली हैं। अधिनायक के अधीन व्यापार और उद्योग समृद्ध हुए हैं। कृषि फलीफूली है। श्रम संकट दूर हो गए हैं।“

(7) कुछ विद्वान अधिनायकतंत्र को मानव-स्वभाव के अनुकूल भी मानते हैं। इसके पक्ष में उनका कहना है कि मनुष्य में स्वभावतः अपने हितों की रक्षा की इच्छा अवश्य होती है। वह अपनी रक्षा चाहता है चाहे यह किसी के द्वारा की जाय। अपनी समस्याओं का समाधान चाहता है। आम जनता को इससे कोई मतलब नहीं होता है कि उसकी रक्षा व्यवस्था कौर करता है? वह तो सुरक्षा चाहती है, अपने हितों की पूर्ति चाहती है। अधिनायकतंत्र में ऐसा सम्भव होने के कारण यह मानव स्वभाव के अनुकूल व्यवस्था भी मानी जाती है।

(8) विकासशील राज्यों के लिए राजनीतिक और आर्थिक विकास की संक्रमणकालीन परिस्थितियों में भी अधिनायकतंत्र उपयोगी माना गया है। विकासशील राज्यों में जनइच्छा की अनुशासित अभिव्यक्ति की समस्या अत्यन्त प्रबल रही है। विकास के विभिन्न चरणों को पार करने के प्रयास में नवोदित राष्ट्र जन आकांक्षाओं को जागृत तो कर देते हैं, परन्तु जन आकांक्षाएं जितनी तेजी से जागृत होती हैं, उतनी तेजी से वे उनकी पूर्ति नहीं कर पाते हैं। इसके कारण राज्य व्यवस्था पर तनाव बढ़ते हैं एवं उसके टूटने का डर रहता है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक अनुशासन बनाए रखने के लिए अधिनायकतंत्र अधिक उपयोगी हो सकता है। हणि्ंटगटन ने ठीक ही कहा है कि ‘नवोदित राष्टोंं में प्रथम कार्य राजनीतिक सहभाग, शिक्षा आदि की वृद्धि के स्थान पर मूलभूत, संस्थात्मक ढांचे का निर्माण होना चाहिए तथा इसके लिए एकदलीय शासन या सैनिक अधिनायकतंत्र भी उपयुक्त हो सकता है।’

अधिनायकतंत्र के दोष

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अधिनायकतंत्र में गुणों के होते हुए भी इस प्रणाली का किसी भी देश में लम्बी अवधि तक प्रचलन नहीं रह पाता है। इतिहास ऐसे प्रमाणों से भरा पड़ा हैं जहां कहीं भी अधिनायकतंत्र स्थापित होता है वहीं पर एक स्थिति ऐसी आती है जब जनता सत्ता सम्पन्न सर्वोच्च शासक को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसात्मक क्रान्ति तक का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाती है। इससे स्पष्ट है कि इस व्यवस्था में कुछ कमियां अवश्य पाई जाती हैं। संक्षेप में इस प्रणाली के दोष इस प्रकार हैं-

(1) इस व्यवस्था में व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्मान नहीं होने के कारण व्यक्ति को सब कुछ सुविधाएं होते हुए भी उसे अपने व्यक्तित्व को अपनी इच्छानुसार विकसित करने का वातावरण नहीं मिल पाता है तथा वह अपने जीवन को अपूर्ण ही रखने पर मजबूर हो जाता है। व्यक्ति को किसी भी प्रकार स्वतंत्रता नहीं रहती है। इससे उसका व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। तानाशाही व्यवस्था में मौलिक अधिकारों एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। अतः तानाशाही व्यवस्था का सबसे बड़ा दुर्गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के दमन का वातावरण बनाना है।

(2) अधिनायकतंत्र शासन व्यवस्था में अत्याचार और अनाचार का बोलबाला रहता है। अधिनायक अपनी सत्ता को बना रखने के लि आतंक फैला रखता है। विरोधियों का बर्बर तरीकों से सफाया कर दिया जाता है। इससे मानव भयग्रस्त होकर जेल के सीखचों में बन्द सा हो जाता है। देश हित में कही गई बात भी अगर तानाशाह की इच्छा के प्रतिकूल है तो उसको ठुकरा दिया जाता है तथा उसके विरूद्ध बात कहने वाले को देशविद्रोही कहकर मौत के घाट उतार दिया जाता है।

(3) तानाशाही व्यवस्था देश के लिए अहितकर होती है। इस व्यवस्था में निर्णय एक व्यक्ति लेता है जो किसी भी प्रकार का विरोध या सुझाव स्वीकार नहीं करता है। इससे तानाशाह द्वारा लिये गये गलत निर्णयों का अहितकर प्रभाव सारी प्रजा को भुगतना पड़ता है। अधिनायक का हर निर्देश लोगों को मानना पड़ता है, चाहे वह निर्देश राष्टींय हित में हो अथवा नहीं हो। इस प्र्र कार तानाशाही व्यवस्था में राष्टींय हितों का समुचित संरक्षण नहीं रहता है।

(4) अधिनायकतंत्र में साधारण व्यक्तियों में आत्म-निर्भरता, क्रियाशीलता तथा स्वतंत्रता की भावना का पूर्णतः लोप हो जाता है, क्योंकि उन्हें बोलने अथवा विचारने आदि की किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं रहती है। इस व्यवस्था में व्यक्ति का तन, धन और यहां तक कि मन भी अधिनायक के लिए हो जाता है और उसे अधिनायक जिधर हांके उधर ही चलने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

अधिनायकतंत्र के गुण और दोष के विवेचन से स्पष्ट है कि यह व्यवस्था मनुष्य को मनुष्य नहीं बनाती तथा उसे मनुष्य के रूप में रहने भी नहीं देती है। इसमें मानव का व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। उसकी सारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के उपरान्त भी उसको कुछ कमी सी महसूस होती है। उसका जीवन कैदी का सा हो जाता है। इसलिए ही अधिनायकतंत्र के अनेक लाभों के होते हुए भी कोई व्यक्ति इस व्यवस्था के अन्तर्गत रहना पसंद नहीं करता है। इस शासन में व्यक्ति के लिए सब कुछ रहता है परन्तु फिर भी उसको ऐसी व्यवस्था में घुटन होने लगती है, क्योंकि व्यक्ति केवल रोटी के लिये ही जीवित नही रहता है। वह इसके अलावा भी बहुत कुछ पाना व करना चाहता है जो केवल सोचने-विचारने तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के वातावरण में ही सम्भव होता है। अतः अधिनायकतंत्र सभी आकर्षणों के बावजूद भी तनाव मस्तिष्क की भूख मिटाने के साधनों पर रोक लगाने वाला होने के कारण जन साधारण द्वारा अमान्य ही रहता है। इस शासन के गुण-दोषों के विवेचन के बाद इसके भविष्य के बारे में संकेत देना सरल हो जाता है।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ ग्रन्थ

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  • इलियट, डब्ल्यू.आई. : द प्रैग्मेटिक रिवोल्ट इन पॉलिटिक्स, न्यूयार्क, १९२८;
  • काबन, ए. : डिक्टेटरशिप, इट्स हिस्ट्री ऐंड थियरी, लंदन, १९३५;
  • केंटोरोविज़, एच. डिक्टेटरशिप, ए सोशियालाजिकल स्टडी, कैब्रिज, १९३५;
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बाहरी कड़ियाँ

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